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असा॑वि ते जुजुषा॒णाय॒ सोमः॒ क्रत्वे॒ दक्षा॑य बृह॒ते मदा॑य। हरी॒ रथे॑ सु॒धुरा॒ योगे॑ अ॒र्वागिन्द्र॑ प्रि॒या कृ॑णुहि हू॒यमा॑नः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asāvi te jujuṣāṇāya somaḥ kratve dakṣāya bṛhate madāya | harī rathe sudhurā yoge arvāg indra priyā kṛṇuhi hūyamānaḥ ||

पद पाठ

असा॑वि। ते॒। जु॒जु॒षा॒णाय॑। सोमः॑। क्रत्वे॑। दक्षा॑य। बृ॒ह॒ते। मदा॑य। हरी॒ इति॑। रथे॑। सु॒ऽधुरा॑। योगे॑। अ॒र्वाक्। इन्द्र॑। प्रि॒या। कृ॒णु॒हि॒। हू॒यमा॑नः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:43» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त विद्वान् ! जिनसे (ते) आपके (बृहते) बड़े (जुजुषाणाय) प्रीति से सेवन किये गये (क्रत्वे) प्रज्ञान तथा (दक्षाय) चातुर्य्य बल और (मदाय) आनन्द के लिये (सोमः) बड़ी ओषधियों का रस वा ऐश्वर्य्य (असावि) उत्पन्न किया जाये और उनके (योगे) संयोग होने पर (अर्वाक्) नीचेवाले (सुधुरा) सुन्दर धुरा जिनकी ऐसे (हरी) हरणशील घोड़ों को (रथे) वाहन में जोड़ के (हूयमानः) स्पर्द्धा किये गये आप (प्रिया) सेवन करने योग्य सुन्दर वस्तुओं वा सुखों को (कृणुहि) सिद्ध करिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिससे बुद्धि, बल, आनन्द और पुरुषार्थ बढ़े और अग्नि और घोड़े आदि के चलाने की विद्या प्राप्त होवे, वह कर्म्म सदा करना चाहिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र विद्वन् ! यैस्ते बृहते जुजुषाणाय क्रत्वे दक्षाय मदाय सोमोऽसावि तेषां योगे सत्यर्वाक् सुधुरा हरी रथे युक्त्वा हूयमानः सन् प्रिया कृणुहि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (असावि) सूयते (ते) तुभ्यम् (जुजुषाणाय) प्रीत्या सेवमानाय (सोमः) महौषधिरस ऐश्वर्य्यं वा (क्रत्वे) प्रज्ञानाय (दक्षाय) चातुर्य्याय बलाय (बृहते) महते (मदाय) आनन्दाय (हरी) हरणशीलावश्वौ (रथे) याने (सुधुरा) शोभना धूर्ययोस्तौ (योगे) संयोजने (अर्वाक्) योऽर्वागधोगञ्चतः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (प्रिया) सेवनीयानि कमनीयानि वस्तूनि सुखानि वा (कृणुहि) (हूयमानः) स्पर्धमानः ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येन प्रज्ञाबलाऽऽन्दपुरुषार्था वर्धेरन्नग्नितुरङ्गादिचालनविद्या प्राप्नुयात् तत्कर्म्म सदाऽनुष्ठेयम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हे माणसांनो! ज्यामुळे बुद्धी, बल, आनंद व पुरुषार्थ वाढतो. तसेच अग्नी, घोडे इत्यादी चालविण्याची विद्या प्राप्त होते ते कर्म सदैव करा. ॥ ५ ॥